बेहतरी से पहले बद्तर न हो हालात @ कोरोना के खतरे से बेपरवाह हैं ग्रामीण, खेती पर संकट

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(अशोक गर्ग✍)

”भाग्य न सब दिन सोता है देखें आगे क्या होता है”। जेठ मास में जंगल में आग की तरह विकराल होते कोरोना के विरुद्ध महाकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां धीरज बनाती है कि आगे जो होगा वह अच्छा होगा। बेरहम कोरोना से निपटने के लिए पूरे देश में तालाबंदी जैसी व्यवस्थाएं भले ही बेहद कष्ट कारक और स्वागतयोग्य ना हो परंतु पुराने की याद में ठंडी आहें भरने से बेहतर होगा कि चुनौतियों और समस्याओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। वक्त की नजाकत को भांप कर उसके साथ चलना समझौता है या समझदारी। हमारा इतिहास और हमारे शाश्वत सांस्कृतिक मूल्य हमें तेज बहाव में भी चट्टान की मानिंद अडिग रहने की प्रेरणा देते हैं इसमें जरा भी क्षरण देश को रुदन और क्रंदन से भर देगा।

भोपाल। सियासत भी क्या शय है जो किसी हद को नहीं मानती। पूरे देश में करोना ने भयावह रुख अख्तियार करने के पहले उसे बुन से खोदकर कर पर्दे हिंदुस्तान से गायब कर देने का बीड़ा उठा लिया है। क्या सियासत दान, क्या हुक्मरान और क्या अदना नौकरान सबने कोरोना को मार भगाने का मानो अज्म-विल-जज्म कर लिया है और यह लाजमी भी है, वरना छाती पीटने के अलावा कुछ भी ना रहेगा। दवा बेहद कड़वी है पर इसे घुटकना ही पड़ेगा। हमारी सतर्कता ही हमारा भविष्य तय करेगी। इस अदृश्य शत्रु से हम सारे अस्त्र-शस्त्रों, साम-दाम-दंड-भेद सारी नीतियों को मिलाकर भी अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकते। प्रकृति के संकेतों को समझने में ही भलाई है।स्व अस्तित्व से ही हम सह अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते है। ऐसे मुश्किल हालातों में समस्त प्राथमिकताओं को दरकिनार कर राष्ट्र धर्म सर्वोपरि हो जाता है परंतु क्या हर हिंदुस्तानी एक कर्मठ सिपाही की तरह सजग और संवेदनशील है। यह कोई मामूली मसला नहीं इस पर ठहर कर चिंतन और अमल की आवश्यकता है।

अंदर कोई बाहर ना जा सके बाहर से कोई अंदर————

किसने जाना था कि 47 साल पहले प्रेमी-प्रेमिका के प्रणय में लिखा गया आनंद बख्शी का यह गीत एक दिन पूरे विश्व की सच्चाई बन जाएगा। 47 सालों तक लोगों का मनोरंजन करने वाला यह गीत आज कितना जीवंत और प्रासंगिक हो चला है। इस गीत को आज मनोरंजन के तौर पर नहीं बल्कि संपूर्ण मानव जाति को नवजीवन देने के तौर पर अमल में लाने की आवश्यकता है।

सरकार इन्हें बांधना चाहे यह मरना चाहे

विश्व के इतिहास में यह पहला अवसर है जब किसी राष्ट्राध्यक्ष को अपने नागरिकों को बचाने के लिए बार-बार राष्ट्रीय संबोधन देना पड़ा है। पहली बार जब मोदी मुखर हुए तब कुछ अवसर वादियो ने उनकी खिल्ली भी उड़ाई 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन शाम को लोगों ने सड़कों पर उतर कर इस कदर जश्न मनाया जैसे उन्हें वर्षो की कैद के बाद रिहाई मिली हो। दूसरी बार राष्ट्र को संबोधित करने के बाद शहरों के हालात में सुधार हुआ भले ही वह डंडे के जोर पर हो परंतु शहरों से दूर गांव के लोगों को देख कर तो ऐसा ही लगता है जैसे उन्होंने स्वयं मौत के मुंह में जाने का गठित निर्णय कर लिया हो।

जब लिखा होगा तभी मरेंगे

शासन और प्रशासन की तमाम कोशिशों के बावजूद वह सोशल डिस्टेंसिंग नहीं आ पा रही है जो कोरोना को मार भगाने के लिए परम आवश्यक है। वह सोशल डिस्टेंसिंग जिसे अपनाकर चीन जैसे देशों ने कोरोना से पार पाया है। विश्व गुरु कहलाने वाले इस देश के लोग आखिर यह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि अलग-थलग रहना ही अपने और अपनो को बचाने का एकमात्र रास्ता है । यह बात तो तय है कि कोरोना को आज नही तो कल भागना ही पडेगा परंतु लापरवाही के कारण इसकी बहुत बडी कीमत चुकानी पड सकती है। नासमझी की गैदरिंग वाली तस्वीरें आपको अपने ही जिले के गांव में सहजता से देखने को मिल जाएंगी। जब विधाता ने लिखा होगा तभी मरेंगे के सिद्धांतों को मानने वाले लोगों के सामने शासन की सारी समझाइश पीएम की सारी अपीले बेमानी है। दकियानूसी में जीने वाले यह लोग यह क्यो समझ रहे हैं कि उनकी यह बेपरवाही, यह अलमस्ती चीखों में बदल सकती है। अभी तो यहां मजे से मजमें और जुए के फड लग रहे हैं।

क्या होगा खेती का

कोरोना संक्रमण के संकट के चलते एक तरफ पूरे देश में ताले बंदी चल रही है तो दूसरी तरफ खेतों में किसानों की फसल पककर तैयार है। इन फसलों की कटाई से लेकर अनाज के भंडारण तक मजदूरों की आवश्यकता होगी। यदि यहां तालाबंदी पर अमल किया गया तो लाखों हेक्टेयर में बोई फसल मिट्टी में मिल जाएगी। देश का अन्नदाता किसान दाने-दाने को मोहताज होकर कर्ज से लग जाएगा। यदि सरकार इनकी व्यवस्था कर भी दे तो बेजुबान पशुओं का पेट कैसे भरेगा। आने वाले यह दिन सरकार के लिए कठिन चुनौतियां लेकर आएंगे जिसके लिए व्यापक रणनीति की जरूरत होगी।

 

( लेखक…दैनिक भास्कर और नवभारत के वरिष्ठ पत्रकार रहे हैं)

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