“ज्ञापन से विरोधाभास तक” : शहडोल का ‘हिंदू एकता आंदोलन’ आखिर किन हाथों में जाकर दिशाहीन हो गया..?
शहडोल। शुक्रवार को सर्व हिंदू समाज के बैनर तले शहडोल में आयोजित विशाल आंदोलन ने जिले की राजनीति में हलचल मचा दी है। यह आंदोलन न केवल अपनी भीड़ और व्यापकता के लिए चर्चित रहा, बल्कि इसलिए भी कि यह पिछले दो दशकों में भाजपा शासनकाल के दौरान हुआ सबसे बड़ा शक्ति प्रदर्शन कहा जा रहा है। दिलचस्प यह है कि इस आंदोलन की शुरुआत हिंदू समाज पर हुए कथित अत्याचार और पुलिस प्रशासन के खिलाफ कार्रवाई की मांग से हुई थी, लेकिन इसका समापन एक राजनीतिक रहस्य में बदल गया — आखिरकार, वह “आंदोलन” जो न्याय की मांग को लेकर शुरू हुआ था, वह “संयम” और “संदेश” तक कैसे सिमट गया?
ज्ञापन में गंभीर आरोप, पर आंदोलन पर नरमी

आंदोलन के दौरान मुख्यमंत्री मध्यप्रदेश शासन के नाम ज्ञापन सौंपा गया, जिसे कलेक्टर शहडोल के माध्यम से भेजा गया। इस ज्ञापन में केशवाही पुलिस चौकी क्षेत्र में नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा प्रतिमा विसर्जन के समय हुई घटना को लेकर पुलिस और प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाए गए थे। ज्ञापन में उल्लेख था कि 03 अक्टूबर की शाम दुर्गा प्रतिमा विसर्जन यात्रा के दौरान मुस्लिम समुदाय के कुछ लोगों द्वारा पथराव किया गया, जिससे महिलाएं और अन्य श्रद्धालु घायल हुए। इस घटना के बाद भी केशवाही पुलिस चौकी के अधिकारियों द्वारा कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। उल्टा, जब हिंदू समाज के कुछ कार्यकर्ता विरोध जताने पहुंचे, तो पुलिस ने उन्हें ही धमकाया, गाली-गलौज की और झूठे मामलों में फंसाने की बात कही।

ज्ञापन में शहडोल पुलिस अधीक्षक रामजी श्रीवास्तव, एसडीओपी धनपुरी , टीआई बुढ़ार थाना प्रभारी, और केशवाही चौकी प्रभारी तक के खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी। सर्व हिंदू समाज ने मुख्यमंत्री से इन अधिकारियों को तत्काल पद से हटाने, उनके खिलाफ FIR दर्ज करने और निष्पक्ष जांच कर कड़ी कार्रवाई की मांग की थी।
दिलचस्प हो गए राजनीतिक समीकरण
आंदोलन में भाजपा की अगुवाई में विराट प्रदर्शन तो दिखा, जिसमें आंदोलन में भाजपा के तीनों विधायक — जैतपुर, ब्यौहारी और जयसिंहनगर क्षेत्र से मौजूद थे। साथ ही जनपद स्तर सहित नगरीय प्रशासन के जनप्रतिनिधि ,पार्षदों और संगठन के सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े पदाधिकारी भी आंदोलन में शामिल थे।दावा किया गया कि यह आंदोलन हिंदू एकता और धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए था। स्थानीय स्तर पर इसे “हिंदू अस्मिता का प्रदर्शन” कहा गया, तो कुछ इसे भाजपा समर्थित प्रशासनिक असंतोष की रणनीतिक अभिव्यक्ति भी मानने लगे लेकिन जैसे-जैसे कार्यक्रम आगे बढ़ा, वैचारिक स्वरूप की जगह राजनीतिक संकेतों ने कब्जा कर लिया।
आंदोलन के बीच से आया ‘संयम’ का बयान, और बदल गई हवा
आंदोलन के दौरान भाजपा के पूर्व जिला अध्यक्ष कमल प्रताप सिंह का सोशल मीडिया के माध्यम से दिया गया बयान अब जमकर वायरल है। उन्होंने खुले शब्दों में कहा कि “हम किसी पर कार्रवाई नहीं चाहते, हम बस यह बताना चाहते हैं कि हिंदू अब एकजुट हैं।”
यह बयान उस ज्ञापन की आत्मा से बिलकुल विपरीत था जिसमें प्रशासन और पुलिस पर गंभीर आरोप लगाकर सख्त कार्रवाई की मांग की गई थी।
यही विरोधाभास आंदोलन को संदेहों के घेरे में ले आया। जब एक ओर ज्ञापन में पुलिस अधिकारियों को “पद से हटाने और FIR दर्ज करने” की मांग थी, वहीं मंच से उसी संगठन के वरिष्ठ नेता ने कहा कि “हम कोई कार्रवाई नहीं चाहते” — तो सवाल उठना स्वाभाविक था कि क्या यह आंदोलन केवल “प्रतीकात्मक” था या फिर “राजनीतिक”।
राजनीतिक विश्लेषण: दबाव, प्रबंधन या रणनीति?
स्थानीय राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि शहडोल का यह आंदोलन भाजपा के लिए “दो धार वाली तलवार” साबित हुआ। एक ओर पार्टी के हिंदू समर्थक संगठन प्रशासनिक ‘अन्याय’ के खिलाफ एकजुटता दिखा रहे थे, तो दूसरी ओर सरकार भी भाजपा की ही थी। ऐसे में आंदोलन का सीधा निशाना अपने ही पुलिस तंत्र पर लगना राजनीतिक रूप से असहज स्थिति पैदा कर गया।
माना जा रहा है कि अंतिम समय में कुछ शीर्ष स्तर पर “मैनेजमेंट” हुआ — या तो प्रशासन ने संवाद स्थापित किया या फिर राजनीतिक दबाव के चलते आंदोलन की धार को जानबूझकर मंद कर दिया गया।
एक अन्य विश्लेषण यह भी कहता है कि भाजपा के भीतर इस समय संगठन और सत्ता के बीच खींचतान अपने चरम पर है। जिला संगठन के कुछ नेता, जो वर्षों से हाशिए पर हैं, उन्होंने इस आंदोलन को अपने प्रभाव के पुनः प्रदर्शन के अवसर के रूप में देखा था। लेकिन मंच से कमल प्रताप सिंह के बयान ने पूरा परिदृश्य बदल दिया।
जनता और संगठन में असमंजस
सोशल मीडिया पर अब आंदोलन से अधिक चर्चा कमल प्रताप सिंह के बयान की है। कई कार्यकर्ता खुलकर कह रहे हैं कि “ज्ञापन की मांगों” और “मंच के संदेश” में भारी विरोधाभास ने आंदोलन की गंभीरता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
कुछ भाजपा कार्यकर्ताओं ने निजी बातचीत में स्वीकार किया कि “हमें लगा था यह आंदोलन प्रशासनिक सुधार के लिए होगा, लेकिन अंत में यह केवल संदेश तक सीमित रह गया।”
दूसरी ओर विपक्षी दलों के स्थानीय नेता इसे “भाजपा की अंदरूनी खींचतान का परिणाम” बता रहे हैं। उनका कहना है कि “भाजपा के अंदर अब दो धाराएं बन गई हैं — एक जो हिंदू राजनीति के जरिए संगठन को मजबूत करना चाहती है, और दूसरी जो प्रशासनिक संयम और सत्ता के प्रति निष्ठा बनाए रखना चाहती है।”
आंदोलन…वर्चस्व की लड़ाई या दूरगामी संकेत?
शहडोल का यह आंदोलन आने वाले समय में जिले की राजनीति की दिशा तय कर सकता है। एक ओर इससे हिंदू संगठनों ने यह संदेश जरूर दिया कि वे “एकजुट और सतर्क” हैं, लेकिन दूसरी ओर भाजपा नेतृत्व की कार्यशैली और प्रशासनिक रवैये को लेकर अंतर्विरोध खुलकर सामने आ गया है।
ज्ञापन में दर्ज मांगों से लेकर आंदोलन में दिए गए बयानों तक, सबने यह साबित कर दिया कि “सर्व हिंदू समाज” का यह आंदोलन केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं, बल्कि गहरे राजनीतिक अर्थ रखता है।
कुल मिलाकर, शहडोल का यह “हिंदू एकता आंदोलन” अब एक “राजनीतिक संकेत” बन चुका है — संकेत इस बात का कि सत्ता और संगठन के बीच खींचतान अब सड़कों पर उतरने लगी है, और जनता के बीच इसका असर आने वाले चुनावों तक देखा जा सकता है।