जिला अस्पताल में शव वाहन ठप, 24 घंटे सेवा के दावे फेल, गरीब परिवार तड़पता रहा, प्रशासन मौन
(अनिल तिवारी)शहडोल।24 घंटे निःशुल्क शव वाहन सेवा का बड़ा-बड़ा दावा करने वाला पोस्टर शहडोल जिला अस्पताल के बाहर खड़ी एंबुलेंस पर तो चमक रहा था, लेकिन जब सच में एक गरीब परिवार को इसकी ज़रूरत पड़ी तो पूरा तंत्र पंगु साबित हुआ। रविवार की सुबह ग्राम कुआंरा, सोहागपुर निवासी अगस्या कुशवाहा पति श्यामकरण कुशवाहा की मौत जिला अस्पताल शहडोल में हो गई। डॉक्टरों ने सुबह करीब 10:40 बजे मृत्यु प्रमाण पत्र भी जारी कर दिया। इसके बाद शव वाहन से शव गांव ले जाने की प्रक्रिया शुरू होनी थी। लेकिन सरकारी दावों की हकीकत खुलते देर न लगी।
परिजनों ने शव वाहन की मांग की तो उन्हें बार-बार टाल दिया गया। अस्पताल परिसर में खड़ी एंबुलेंस पर साफ लिखा है “शासकीय शव वाहन सेवा, 24 घंटे निःशुल्क सेवा” और नीचे यह भी कि अधिक जानकारी के लिए जिला अस्पताल में संपर्क करें। लेकिन परिजन घंटों अस्पताल परिसर में शव लेकर बैठे रहे। दोपहर की तपती धूप, भूखे-प्यासे परिजन और घर पर इंतजार कर रहे रिश्तेदारों की बेकरारी यह सब मिलकर हालात को और मार्मिक बना रहे थे।
जिम्मेदारों का ढुलमुल रवैया
मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. राजेश मिश्रा से जब परिजनों ने और हमारे प्रतिनिधि ने बात की तो उन्होंने कहा “व्यवस्था तुरंत कर दी जाएगी।” इसी तरह सिविल सर्जन डॉ. शिल्पी सराफ ने आधे घंटे में शव वाहन की सुविधा उपलब्ध कराने का भरोसा दिया। लेकिन वक्त बीतता गया, भरोसे की बातें खोखली साबित होती गईं और गरीब परिवार की पीड़ा गहराती चली गई।
जिला अस्पताल के बाहर खड़ी शव वाहन सेवा की एंबुलेंस मानो शासन-प्रशासन की नाकामी पर हंस रही थी। पोस्टर पर “24 घंटे, सातों दिन निःशुल्क सेवा” का दावा और ठीक सामने बेसहारा परिवार का दर्द यह तस्वीर प्रशासन की संवेदनहीनता की सच्चाई बयान कर रही थी।
प्रशासन की चुप्पी और जनता का सवाल
जिला मुख्यालय में कलेक्टर का कार्यालय, कलेक्टर का निवास, पुलिस अधीक्षक का दफ्तर, यहां तक कि जयसिंहनगर विधायक का निवास भी अस्पताल से चंद कदमों की दूरी पर है। तमाम बड़े अधिकारी और नेता उसी इलाके में रहते हैं। लेकिन हैरत की बात है कि कोई भी गरीब परिवार की मदद के लिए आगे नहीं आया।
गांव से आए परिजनों का कहना था कि मौत ने पहले ही उन्हें तोड़ दिया, अब शव वाहन न मिलने से वे दोगुना आहत हो गए हैं। घर पर बाकी रिश्तेदार शव का इंतजार कर रहे थे, लेकिन प्रशासनिक लापरवाही ने उन्हें तड़पा दिया। यह स्थिति बताती है कि गरीबों को न जीते जी सुविधाएं मिलती हैं और न मरने के बाद सम्मान।

करोड़ों का बजट, लेकिन सुविधाएं गायब
स्वास्थ्य विभाग और जिला अस्पताल के नाम पर हर साल करोड़ों का बजट आता है। अधिकारियों और कर्मचारियों की मोटी तनख्वाह इन्हीं योजनाओं और करदाताओं के पैसों से निकलती है। वातानुकूलित कक्षों और आलीशान वाहनों में बैठने वाले जिम्मेदार अधिकारी जब असल मौके पर अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रहते हैं, तो सवाल उठना लाज़मी है। क्या गरीब महज आंकड़े हैं?
24 घंटे शव वाहन सेवा की सुविधा के नाम पर बजट खर्च होता है, एंबुलेंस पर बड़े-बड़े नारे लिखे जाते हैं, लेकिन जब कोई ग्रामीण परिवार इसका लाभ लेना चाहता है, तो उसे अपमान और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है।
मानवीय संवेदनाओं का गला घोंटती लापरवाही
अस्पताल परिसर में शव के साथ बैठे परिजन बार-बार यही कह रहे थे “सरकार ने 24 घंटे निःशुल्क शव वाहन सेवा का वादा किया है, लेकिन हमें यह सुविधा क्यों नहीं मिल रही?” उनकी आंखों में आंसू और चेहरे पर लाचारी साफ दिख रही थी। मौत से टूटे परिवार को कम से कम शव वाहन जैसी बुनियादी सुविधा मिलनी चाहिए थी, लेकिन यहां प्रशासन का मानवीय चेहरा पूरी तरह गायब रहा। लोगों ने सवाल उठाया कि जब जिला अस्पताल जैसी बड़ी जगह पर शव वाहन सेवा ठप है तो गांव-गांव, कस्बों और दूरदराज़ इलाकों में इसका क्या हाल होगा?
मानवता शर्मसार, जवाबदेही कौन लेगा?
जिला अस्पताल में रविवार को जो हुआ, वह सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं बल्कि पूरे सिस्टम की नाकामी का आईना है। गरीबों के नाम पर बजट खपाना, योजनाओं के पोस्टर चिपकाना और धरातल पर सुविधाओं का गायब होना यही असली हकीकत है।
मानवता तब शर्मसार हो जाती है, जब अस्पताल परिसर में शव पड़ा हो और परिजन मदद के लिए भटक रहे हों, जबकि चंद कदम दूर बैठे अफसर फाइलों और दावों के ढेर में व्यस्त हों। यह स्थिति बताती है कि शासन-प्रशासन ने संवेदनशीलता खो दी है।