सारा संसार एक ही नूर से पैदा हुआ: संत पुनीराम जी

0
सारा संसार एक ही नूर से पैदा हुआ: संत पुनीराम जी
गुरू की कोई जाति धर्म और वर्ण नहीं होती गुरू सिर्फ  गुरू होता है सबके लिए समान 
मानव की एक ही जाति, एक ही धर्म है Óइमानदारी और सच्चाई’
संत शिरोमणी रविदास की के अमृत संदेशों को संत पुनीराम जी के द्वारा जन-जन तक पहुंचाने के लिए वर्षो से प्रयासरत है, ईमानदारी, सच्चाई और लोगों को प्रकृति की वास्तविक गतिविधियों से जोडने के लिए लगातार उन्होने अपनी वाणी और शब्दो को लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया है, सैकडों लोग उनसे प्रेरित होकर सत्यता की मार्ग को अपना चुके है।
अनूपपुर। जिसके मन में गुरू के प्रति विश्वास है तो मान लिजिए कि गुरू साथ में है। यह तो मीरा बाई के साथ कई बार हुआ है जब जब मीरा बाई को जाति और गुरू के नाम से सताया गया, प्रताडि़त किया गया तब तब सतगुरू रविदास की कृपा हुई और मीरा बचती रही। मीरा बाई को गुरू प्रताप के कारण कोई ऑच तक नही आया। सतगुरू रविदास 52 राजवंशो के गुरू थे, उसी कड़ी में चित्तौड़ की रानी मीरा बाई राजपूत थी जिन्होने सच्चे मन से संत शिरोमणी रविदास को गुरू स्वीकार किया था। लाख उलाहनों के बावजूद भी मीरा बाई ने रविदास को ही गुरू स्वीकार की थी। चमार को गुरू मानना असंभव बात थी, लेकिन अखण्ड ज्ञानी ध्यानी और तपस्वी संत शिरोमणी रविदास ने मानव समाज में उस समय जाति और वर्ण व्यवस्था चरम अवस्था में विकराल रूप लिया था, उस समय संभव करके दिखा दिया कि गुरू की कोई जाति धर्म और वर्ण नहीं होती गुरू सिर्फ  गुरू होता है सबके लिए समान है राजा और रंक की पहिचान गुरू के पास नही है, यह सिद्ध करके दिखा दिया था। समता और समानता लाने वाले सतगुरूओं में प्रथम स्थान चमार कुल में पैदा होकर भी रविदास जी को है और माना जाता है। प्रकृति पुजारी संत शिरोमणी रविदास के कर्म क्षेत्र इतने महान थे कि गंगा की धारा उल्टा बहने लगी अर्थात उद्गम की ओर बहने लगी, वैसे तो उद्गम से धारा बहती है और अपने अंतिम पड़ाव समुद्र में जाकर विलीन हो जाती है, लेकिन सतगुरू ने मानव समाज को सबके उद्गम अर्थात जन्म से जोड़कर दिखा दिया कि और मानव समाज के लिए उनके वाणी का उद्गार हुआ।
रविदास एक ही बुन्द सो, सब भयो बिस्तार।
मूरख है जो करत हैं, वरण अवरण विचार।।
संतगुरू रविदास ने कहा है कि माता पिता के एक बुंद से इस संसार में सबकी उत्पत्ति हुई है अर्थात सब पेदा हुए है जो मूर्ख होते है वही वर्ण के विषय में चर्चा करते है। वर्ण अवर्ण का विचार करना झूठ है सबका जन्म एक समान है माता पिता के संयोग के बिना कोई भी जन्म लेकर नही आता है। आने का भी एक ही मार्ग है पलने का भी एक ही स्थान पेट है फिर वर्ण व्यवस्था कहॉ से आया उन्होने आगे कहा है।
रैदास जाति न पुषाई, का जात का पात।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्य शूद्र, सबन की इत जात।।
संत सतगुरू रविदास ने कहा है कि यहॉ कोई ब्राह्मण क्षत्री, वैश्य, शूद्र नहीं है, सब एक ही जात के है अर्थात सभी मानव है यही एक जात है। इसके अलावा कोई जात नही है। मानव को ग्रसित करने के लिए कर्म के आधार पर जाति बनाया गया है यह झूठ है। आदमी अपनी पेट भरने के लिए कुछ न कुछ काम अवश्य करता है। उदाहरण के लिए किसान खेती करता है तो उसकी जाति किसान जाति होनी चाहिए लेकिन किसी की जाति किसान की नही है। इंसान को जाति के नाम पर गुमराह नही होनी चाहिए जो आदमी जाति के और वर्ण व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंस जाता है वह पिढ़ी दर पीढ़ी इस भयंकर जानलेवा पीड़ादायी रोग से बच नही पाता है। मेरे समझ में जो आदमी किसी प्रकार की जाति और वर्ण व्यवस्था साथ ही धर्म को नही मानता उसको यह बिमारी स्पर्ष तक नही कर सकता है। जो करीब जाता है उसी को इस भयंकर रोग का शिकार होना पड़ता है। इसलिए सतगुरू का संदेश रहा है कि मानव को मानव जाति के नाम जानना मानना चाहिए।
रविदास इक ही नूर से, जिमि उपज्यो संसार।
ऊॅच नीच किहि विधभये, ब्राह्मण और चमार।।
सतगुरू रविदास जी ने कहा है कि सारा संसार एक ही नूर से पैदा हुए है फिर किस कारण से ऊॅच नीच हुए, ब्राह्मण और चमार हुए। वर्ण व्यवस्था तो मानव ने स्वयं बनाए है मालिक ने नहीं बनाया है प्रकृति ने नहीं बनाया है। वह कौन सा भगवान है जो मानव को वर्ण व्यवस्था के अनुसार जन्म देता है यदि भगवान ने ऐसा जन्म दिया है तो जन्म में अंतर होना चाहिए तभी तो वह प्रमाणित किया जा सकता है, लेकिन उन्होने मानव की सृष्टि प्रारंभ से लेकर जन्म तक कोई भेदभाव नहीं किया है। संतगुरू रविदास ने स्वयं कहा है कि वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था साथ ही धर्म व्यवस्था सभी मानव ने अपनी एक संगठन बनाने के लिए स्वार्थ वश बनाया है। मानव की एक ही जाति है मानव का एक ही धर्म है इमानदारी और सच्चाई एक ही वर्ण है स्त्री या पुरूष इसके सिवाय मानव मानव में कोई भेद नही है। किसी जाति धर्म के बहकावे मे जो आकर अपनी सोच और मानवता को ही भूल जाता है और स्वयं इसरो से हीन समझा जाता है। संतगुरू रविदास जाति प्रथा और वर्ण व्यवस्था को समूह नष्ट करना चाहते थे लेकिन देशकाल और परिस्थिति ने शिक्षा की अनुपस्थिति ने दृढ़ संकल्पित होने नही दिया साथ गरीबी और भूखमरी ने आदमी को पेट तक ही बांध कर रख दिया लेकिन आज लोग पढ़ लिख गए है शिक्षा का विस्तार हो चुका है शिक्षा के द्वारा समझ पैदा होता है सच्चाई  को अब समझा जा सकता है। संत शिरोमणी रविदास धर्म के उपर प्रहार करते हुए मानव समाज को समझाते हुए कहते है कि-
मस्जिद सो कहु धिन नहीं, मंदीर सो नहीं प्यार।
दोऊॅ मह अल्लाह राम नहीं कह रविदास चमार।।
सतगुरू का कहना है कि मंदीर और मस्जिद में कोई भेद नही है दोनों एक ही समान है दोनो में राम और अल्लाह नहीं है। ईश्वर तो कण कण मे बसते है वह कहॉ नहीं है फिर भगवान के लिए घर बनाने की आवष्यकता है।
जो बस राखै इंद्रिया, सुख दुख समझ समान।
सोउ असरित पद पाइगो, कहि रविदास बलवान।।
जो इंसान अपने इंद्रियों को वश मे रख लेता है उसके लिए दुख और सुख एक समान हो जाते है। ऐसा करने वाला साधक इंसान कभी भी जीवन से घबराता नही है वह महा बलवान है, वह किसी प्रकार से किसी दुख सुख एसे जीवन में कभी भी परास्त नही कर सकते है। आदमी को अपना भीतर और बाहर एक समान रखना चाहिए जो कुछ भी हम करते है वह भीतर से ही होता है और जो हम बाहर में देखते है वह भीतर में जाता है इसीलिए सतगुरू जी ने समझाया है जो आदमी भीतर और बाहर को एक समान बना लेता है अर्थात सम में आ जाता है इस भव समाज से सहज में पार लग जाता है रविदास समदर्शी गुरू थे उनके पास भीतर और बाहर एक समान था।
धन संचे दुख देत है, धनमति त्यागे सुख होई।
रविदास सीख गुरूदेव की, धनमति जोरे कोई।।
जो आदमी धन का संचय करता है वह दुख पाता है अर्थात जो धन लूट और झूठ से संचित किया जाता है। लेकिन जो इंसान संचित धन को सेवा के लिए त्याग कर देता है वह इंसान सुखी रहता है यह संदेश संतगुरू रविदास जी ने दिया है। सतगुरू रविदास जी ने जाति और धर्म में अंतर स्पष्ट करते हुए कहते है कि –
रविदास कंगन अरू कनक में, जिनि अंतर कहु नाहि।
तो सो रही अंतर नहीं, हिन्दुअन तुरकन माहि।।
जिस प्रकार से कंगन अरू कंगन मे अंतर नही है कनक अर्थात सोना और कंगन अर्थात सोने से बना आभूषण दोनों में कोई अंतर नही है ठीक उसी प्रकार से हिन्दू और मुसलमान में कोई अंतर नही है। आखिर दोनो ही तो इंसान है। यहॉ सतगुरू जी ने धर्म के नाम पर जो भेदभाव होता है उस भ्रम को मिटाते है। जो सच्चा समझदार षिक्षित इंसान होते है वे सतगुरू की वाणी को समझकर किसी भी जाति और धर्म से भेज नही करते सबको मानव ही समझते है और समान व्यवहार करते है। सृष्टि में केवल भावना ही असली भगवान का रूप है। भाव और भावना सही होने पर भगवान का स्वरूप अलग-अलग हो जाता है वही भेद करके भटक जाते है। जिनका भाव और भावना सबके लिए एक समान होता है वे ही इंसान भगवान को सचमुच में जान पाते है। आशा है सतगुरू की सत वाणी को पढ़कर अपनी भाव और भावना समता की ओर होगी।
13_Feb_anup_ph_01.jpg

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may have missed