नाम बड़े और दर्शन छोटे बन कर रह गयी एम्स – नारायण त्रिपाठी
भोपाल।जैसे ही आमजन की जुबान पर एम्स का नाम आता है लोगो के जहान में एक चलचित्र चलने लगता है जिसमे वह सर्वसुविधा युक्त अस्पताल विशेषज्ञ डॉक्टरों व उच्च तकनीकी की चिकित्सा व्यवस्था देखने लगता है। एक गरीब आदमी अगर एम्स तक पहुँच जाता है तो उसकी मानो ईश्वर से मिलने की परिकल्पना साकार हो गयी ऐसा वह मानने समझने लगता है उसकी उम्मीदों में सीधे सौ गुना का इजाफा होता है। एम्स आने के बाद उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि यहां उसके कष्ट का निदान हो जाएगा उसकी काया निरोगी हो जाएगी वह अब बच जाएगा। लेकिन उन मजलुमो को यह नही पता कि गरीबो के साथ एक बहुत बड़े विश्वासघात का नाम है एम्स अस्प्ताल। इन अस्पतालों में लोग इलाज के लिए तीन तीन चार चार किलोमीटर की लाइनें लगाते है लोग भटकते रहते है हमारी सरकारें एक से बढ़कर एक उच्च तकनीकी की मशीनें जांच हेतु यहां लगाई गई है लेकिन महीनों गुजर जाते है दो चार महीनों की उन्हें जांच हेतु डेट मिलती है और दुर्भाग्य देखिए जांच के पहले ही वह मरीज दम तोड़ चुका होता है।यानी चांज तक पहुचने के पहले मरीज गंभीर हो जाता है काल के गाल में समा जाता है तब तक उसके जांच की डेट आती है। सोचिए जरा ऐसी अस्प्ताल और ऐसी जांच किस काम की।
पूर्व विधायक मैहर नारायण त्रिपाठी ने कहा कि यदि अस्प्ताल में जांच करने वाले डॉक्टरों मरीज को देखने वाले डॉक्टरों में मानवीय संवेदनाएं है तो इनका फर्ज और दायित्व होता है कि जिस भी मरीज या रोग पीड़ित व्यक्ति को चेक करें उसे जो भी जांच की आवश्यकताए है उसे लगातार एक दो दिनों में पूर्ण करे और उसका समुचित इलाज अविलंब सुरु करे।यह कार्य आखिर क्यों नही हो सकता यदि हम चाहेंगे तो यह कार्य हो सकता है। गरीब मरीज दयनीय स्थिति में आपके पास पहुंचता है आप उसे 15 दिन या दो चार माह बाद की तारीख जांच हेतु देकर अपना पल्ला झाड़ लेते हो और इसी दौरान वह गरीब दुनिया छोड़ जाता है ऐसे में आप किसकी जांच करोगे। श्री त्रिपाठी ने कहा कि गाँव का गरीब अपना घर द्वार जगह जमीन बेंचकर आपके पास तक इलाज कराने पहुँचता है ऐसी स्थित में या तो इन अस्पतालों को बंद कर दिया जाना चाहिए या तो गरीबो के विश्वास को जीतने उन्हें समय पर सुविधा उपलब्ध कराने का कार्य किया जाना चाहिए। नारायण त्रिपाठी ने कहा कि हम भी इन अस्पतालों में जाते है व्यवस्थाओं को देखते है गरीब आदमी अपने जांच के कागज लिए इस दरवाजे से उस दरवाजे जबतक भटकता रहता है जबतक उसका मरीज जीवित रहता है इसके बाद वह सरकार और व्यवस्था को कोषते हुए अपनी पीड़ा लिए अपने घर को वापस लौट जाता है आखिर कबतक हमारी संवेदनाएं जागेंगी हमारी व्यवस्थाएं कैसे सुधरेंगी?