बुनियादी शिक्षा में संस्कार देने से संवरेगा का देश का भविष्य:श्रीमती कुसुम पाठक

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शहडोल/उमरिया।आज के डिजिटल युग मे हर दिवस की तरह शिक्षक दिवस भी रस्म अदायगी के साथ मनाया जाएगा‌। फिर अगले दिन से पढ़ने- पढ़ाने का सरकारी या गैर सरकारी ढर्रा चल पड़ेगा। कभी सोचा है कि शिक्षक गुरु द्रोण की तरह अपने में बच्चों के प्रति स्नेह और विद्या का भंडार कैसे ला पाएंगे। या बच्चों ने कभी सोचा है कि शिक्षकों के प्रति एकलव्य की तरह श्रद्धा और सम्मान कैसे मन में रख पाएंगे। नहीं ना। क्योंकि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है। अंग्रेज लार्ड मैकाले की बनाई शिक्षा प्रणाली कमोबेश आज भी चल रही है, जिसमें शिक्षक, विद्यादायन के पारंपरिक और पुनीत कार्य को अब अपनी सरकारी नौकरी समझ बैठा है‌। बच्चे पढ़ने लिखने को एक बोझिल काम समझने लगे हैं। असल में पूरा तो नहीं लेकिन ज्यादा दोष इस प्रणाली में शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया का है। भर्ती के समय गुरुजी बनने के लिए अहर्ताएं देखी जाती हैं कि वह कितना पढ़ा लिखा है। आरक्षण के दायरे में आता है कि नहीं। इसके बाद कोई गुरुजी बनता है तो वह यही सोचकर बनता है कि उसे स्कूलों में जाना है और अपनी नौकरी करनी है। इससे कोई मतलब नहीं है कि वह कितना गुणी है या नैतिक रूप से बच्चों को संस्कार देने में कितना सक्षम है। जबकि ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता प्राथमिक शिक्षा में बेहद जरूरी है। असली शिक्षक वही है जो हृदय से बच्चों से जुड़ा रह सकता हो, उसका लक्ष्य बच्चों का सर्वांगीण विकास हो, केवल किताबी ज्ञान देना और वेतन पाना उसका उद्देश्य नहीं हो, क्योंकि कम उम्र में नौनिहाल कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं। जबकि संस्कारवान शिक्षक, समाज में कुम्हार की तरह होता है जो कच्ची माटी यानी नन्हे मुन्नों को सही तरीके से गढ़ने के काम आता है। उसके हाथ इतने मजबूत और सधे हुए तो होने ही चाहिए कि वह समाज के लिए अच्छे प्रतिभावान नागरिक तैयार कर सके।
पता नहीं कब सरकारें बुनियादी शिक्षा के इस महत्व को समझेंगी। सुप्रीम कोर्ट ने तो पहली से आठवीं तक की शिक्षा यानी बुनियादी शिक्षा के महत्व को समझा है और इसे मौलिक अधिकार की संज्ञा दे दी।लेकिन इतने से काम नहीं चलने वाला। क्योंकि हमारे सड़े गले सिस्टम ने इस मौलिक अधिकार का मतलब तो यह समझा है कि बच्चों को किसी तरह धेल ढकेल के या एक वक्त के मध्यान भोजन के सहारे स्कूल भेजो और वह पढ़ें या ना पढ़े, उसे ले देकर पास कर दो। इससे तो मामला और बिगड़ने लगा है‌। हम सबको समझना पड़ेगा कि देश में शिक्षा की बुनियाद इसी तरह कमजोर रहेगी तो उसका भविष्य क्या खाक मजबूत होगा या हम कभी इस तरीके से विश्व गुरु तो नहीं बन पाएंगे ना।

ऐसे में याद आती हैं *दुष्यंत कुमार* की यह चार लाइनें….
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी।
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

यह सब देख कर तो लगता है कि शिक्षा की पुरातन व्यवस्था ही ठीक थी, जिसमें छात्र आश्रम में रहते थे और शिक्षा ग्रहण करते थे, उन्हे कठिन परिश्रम करना पढ़ता था। बड़े बड़े राजा महाराजा कि संतानें भी कठिन परिस्थितियों में शिक्षा ग्रहण करती थीं। तब छात्र अपने जीवन का एक बहुत बढ़ा हिस्सा शिक्षा ग्रहण करते हुये आश्रम में गुरु की सेवा में बिताया करते थे। यानी तब बच्चों की बुनियाद कठोर तरीके से तराशी जाती थी। शायद यही वजह है कि हमारे देश में एकलव्य और आरुणी जैसे शिष्य भी हुये हैं। जिन्होंने अपने गुरु के आदेश मात्र पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।
वैसे तो शिक्षक सम्मान के लिए किसी दिन के मोहताज नहीं हैं। परंतु फिर भी भारत में शिक्षक दिवस डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन के दिन 5 सितंबर को मनाया जाता है‌। भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति डॉ राधाकृष्णन का शिक्षा के प्रति विशेष रुझान था‌। अपने जीवन के 40 साल उन्होंने इस क्षेत्र को दिए और कहा कि बेहतर शिक्षा से हम नागरिकों को भविष्य की चुनौतियों के लिए खड़ा कर सकेंगे। अर्थात शिक्षक दिवस की सार्थकता उनके इन्हीं शब्दों में छुपी हुई है कि हमें शिक्षा की बुनियाद पर ध्यान देना होगा तभी भविष्य की चुनौतियों से निपटने में हम सक्षम होंगे। और इसके लिए हर माता-पिता की जवाबदेही है प्रतिदिन बच्चों को स्कूल भेजने की, हमारे समाज की जवाबदेही है बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनाने में विद्यालय का सहयोग करने की, हर शिक्षक की जवाबदेही है अपने विद्यालय को आनंद घर बनाने की , बच्चों को विद्यालय में स्नेहिल वातावरण देने की ,बच्चों से मित्रवत व्यवहार करने ,की उनकी परेशानियों को समझने की, बच्चों को खेल खेल में शिक्षा देने की , उनको आत्म विश्वासी बनाने की, ताकि बच्चे व्यवहारिक जीवन में आने वाली चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो सके और बच्चे विद्यालय की ओर आकर्षित होकर प्रतिदिन विद्यालय आये विद्यालय से भागे नहीं ।
और अंत में :
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

लेखिका
श्रीमती कुसुम पाठक
(शिक्षिका)
बिरसिंहपुर पाली
उमरिया (मध्य प्रदेश)

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