अगर विकास हो रहा तो पलायन क्यों कर रहे आदिवासी

समाज के प्रति भी उत्तरदायी नहीं आदिवासी विधायक
शहडोल। जिले की तीनो विधान सभाओं से यद्यपि विधायक निर्वाचित हैं और वे कार्यक्रमों में यदाकदा दिखाई भी
पड़ते हैं। लेकिन इसके बावजूद पूरे जिले में एक राजनीतिक शून्यता और नीरवता की स्थिति दिखलाई पड़ती है।
कहने को तो जिले को आदिवासी बहुल कहा जाता है। जहां विकास की अकूत संभावनाएं हैं, शासन बजट देने में भी
आनाकानी नही करता है, फिर भी यहां पिछड़ेपन की काई नहीं छूट रही है। आदिवासियों का जीवन भी मुख्य धारा से
कोसों दूर है। जीवनयापन की समस्या से त्रस्त हो कर वे कभी पलायन करते हैं तो कभी धर्म परिवर्तित करते नजर
आते हैं। उनके जीवन में इतनी उठा पटक क्यों है। मसला यह है कि उनकी योजनाओं में अफसरों के डैने गड़े हैं।
लेकिन कोई उनकी गिरेबान पकडऩे वाला नहीं है। विधायक भले ही आदिवासी समाज के हों लेकिन प्रकारांतर से
उनमें सामाजिक समरसता का भारी अभाव है। उनमें सामाजिक दायित्व बोध का अभाव है। उन्हे इतना भी इल्म
नहंी कि चुनाव जीतने के बाद वे जनता के प्रति लोकतांत्रिक रूप से उत्तरदायी हैं। जनता का चतुर्दिक विकास और
उसकी समस्याओं का निवारण अब उनकी पहली प्राथमिकता है। विधायकों की ऐसी प्रतिबद्धता जिले में कहीं दिखाई
नहीं पड़ती। शायद इसीलिए राजनीतिक रूप से यहां एक खालीपन सा नजर आता है।
पिस रहा आदिवासी समाज
जिस समाज के लोग सत्ता में सीधी भागीदारी निभा रहे हों उस समाज के लोग आज भी दबंगो व पुलिस वालों की बूटों
तले पिस रहे हैं। हलका पटवारी उनकी छाती पर सवार है। पुश्तैनी वाशिंदा होने के बावजूद हर साल इन निरीहों की
खेती बाड़ी अवैध कब्जों की भेंट चढ़ रही है। विकास का पन्ना तो बाद में खुलेगा पहले अपने जान माल की सुरक्षा का
सवाल उठता है। इस मामले में विधायकों की ओर से इन्हे कितनी राहत मिल रही है। कोई विधायक किसी आदिवासी
के घर उसका दुख दर्द पूंछने नहीं जाता है। आदिवासी अपना कागज लिए दफ्तरो में गुहार लगाता फिरता है, जबकि
विधायक गुलछर्रे उड़ाता घूमता रहता है। जबकि वास्तव में होना यह चाहिए कि जनता की हर लड़ाई विधायक की
लड़ाई होनी चाहिए। जनता को भटकने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए। मजे की बात यह है कि अगर यहीं किसी
सामान्य श्रेणी का विधायक होता तो उस पर पक्षपात और उपेक्षा बरतने का आरोप लग जाता।
रोटी की तलाश मेंं पलायन कर रहे
विधायकों के ही समाज के लोग अपना गांव घर छोडक़र कमाने खाने अन्य प्रदेशों में जाकर काम करने को विवश हैं।
यह एक कड़वी सच्चाई है कि यहां रोजगार के अवसरों पर न्यायसंगत ढंग से कार्य वितरित नही किया जा रहा है।
अगर ऐसा न होता तो आदिवासी मनरेगा जॉब कार्ड मजदूरी से वंचित नहीं होते। एक तो पर्याप्त ढंग से रोजगार नहीं
मिलता और अगर मिलता भी है तो सचिवों की दादागिरी ऐसी कि महीनों भुगतान नहीं होता। बेचारे भुगतान के लिए
6-6 महीने भटकते रहते हैं। उसमें भी सचिव की इच्छा चाहे जिसे जितना दे दे। क्या कोई विधायक यह देखता है कि
इन निरीह आदिवासियों का हक मार कर सचिव अपने रिश्तेदारों को उपकृत कर रहा है। जब उनका यहां कोई सहारा
नहीं तो फिर वे क्यों न पलायन करेंगे? आदिवासियों का पलायन विधायकों के लिए किसी लांछन से कम नही है।
योजनाओं का लाभ कितना मिला?
विधायक की यह पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह शासन द्वारा जारी योजनाओं पर पूरी नजर रखें और इस
बात की मॉनीटरिंग करे कि उसके विधानसभा क्षेत्र में योजनाओं का संचालन किस तरह किया जा रहा है। कितने पात्र
आदिवासियों को उसका लाभ दिया गया। विधायक का शिकंजा सरपंच व सचिव पर निरंतर बना रहना चाहिए। अगर
विधायक का दबाव उन पर बनेगा तो वे मनमानी किसी तरह नहीं कर सकते। लेकिन विधायक खुद आदिवासियों के
सुख दुख से बेजार हैं उन्हे कोई सरोकार नहीं विधायकों का यह हाल देखकर सरपंच व सचिव मजे से खेल दिखाते रहते
हैं। पहले पक्के आवास सरपंच, सचिव के चहेतों के बनते हैं फिर शेष आदिवासियों से रुपया पैसा ले कर उनके आवासों
के बारे में सोचते हैं। आप किसी विधायक से पूछ लीजिए उसके क्षेत्र के कितने पात्र हितग्राही आदिवासियों के आवास
बने हैं तो वे शायद ही सही जानकारी दे पाएंगे। वे यही कहेगे कि पता करना पड़ेगा, मतलब कि अभी तक उनको यह
पता नहीं है।
विकास कहां हुआ और किसका हुआ
दिल्ली-भोपाल से विकास की गंगा चाहे जितनी तेजी से निकले जिले तक आते आते उसकी धार मंद पड़ जाती है।
सबसे पहले सरपंच व सचिव उसमें अपनी डौल बैठाते हैं। स्वच्छता मिशन का शौचालय निर्माण देखा जा सकता है।
एक तो घटिया निर्माण करा कोरम पूरा कर लिया गया। शौचालयों के दरवाजे ही बंद नहीं होते, आधे शौचालय तो
आज भी अधूरे पड़े हैं जिन्हे पूर्ण दर्शाकर वाह वाही लूटी गई। किसी भी विधायक ने अपने क्षेत्र का जायजा नहीं लिया
कि आदिवासियों के शौचालय किस गुणवत्ता के साथ बनाए जा रहे हैं। अगर मौका मुआयना करने और विरोध जताने
विधायक जनता के बीच खड़े होते तो क्या अमले के लोग इतनी मनमानी कर पाते? वास्तव में जिले की राजनीति
आज भी जमीन से जुड़ी नहीं है, न जनप्रतिनिधियों को वास्तविक राजनीति के गुण-धर्म से कोई सरोकार ही है।