जिले में अफसरशाही का अटूट जोड़ – जनता बेहाल, अफसर मालामाल!

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सूरज श्रीवास्तव
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जिले के सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों में वर्षों से जमे हुए अधिकारी और कर्मचारी अब किसी सरकारी संपत्ति की तरह पक्के हो चुके हैं। इनका स्थानांतरण करवाना उतना ही मुश्किल है जितना सरकारी अस्पताल में समय पर डॉक्टर का मिलना। तहसील से लेकर थाना तक, सब जगह वही पुराने चेहरे, वही घिसी-पिटी फाइलें, और वही “इधर का उधर” वाला धंधा बदस्तूर जारी है।

अफसरों का अटल सिंहासन – जनता का हिलता विश्वास

तहसील में अगर आपको कोई काम करवाना है, तो पहले दरबार में सलामी देना अनिवार्य है। यहां के बाबू किसी वॉकिंग-टॉकिंग रेट लिस्ट से कम नहीं हैं। बस फर्क इतना है कि ये रेट लिस्ट सरकारी नोटिस बोर्ड पर नहीं, बल्कि इनकी जेबों में होती है। जमीन से जुड़े ये पटवारी और तहसीलदार अब जमीन के मालिकों से भी ज्यादा अमीर हो चुके हैं।

इनकी कार्यशैली का आलम यह है कि अगर आपका नाम किसी सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज होना है, तो पहले आपकी जेब से नोट निकलने चाहिए। हर काम का एक तयशुदा रेट है – जैसे होटल में मेन्यू कार्ड होता है, बस यहाँ ऑर्डर लेने के लिए वेटर की जगह बाबू बैठे हैं।

पुलिस थानों में “फेविकोल का मजबूत जोड़”

पुलिस थानों में तैनात कुछ अधिकारी तो इतने वर्षों से अपनी कुर्सियों से चिपके हुए हैं कि अब कुर्सी और अफसर में फर्क करना मुश्किल हो गया है। ये कुर्सियाँ बदलवाना नेताओं के बस की बात नहीं, क्योंकि नेता खुद इसी सिस्टम की मलाई खाने में व्यस्त हैं।

नए पुलिस अधीक्षक के आने से जनता को थोड़ी उम्मीद जगी थी, मगर कुछ ही समय में उम्मीदें भी सरकारी फाइलों की तरह धूल खा रही हैं। अपराध कम होने के बजाय बस “फाइलों में” कम किए जा रहे हैं, और आम जनता की शिकायतें दर्ज होने से पहले ही डस्टबिन में चली जाती हैं।

जनप्रतिनिधि या जनविरोधी?

जिले में नेताओं की भूमिका अब केवल दो चीजों तक सीमित रह गई है – पहला, हर पांच साल में चुनाव लड़ना। दूसरा, चुनाव जीतकर अगले पांच साल तक खजाना भरना। जनता को देखकर ये नेता उतने ही अनजान बन जाते हैं जितना सरकारी दफ्तरों में टेलीफोन की घंटी सुनकर बाबू।

राजनीति को सेवा का माध्यम बताने वाले अब इसे “मेवा” का माध्यम बना चुके हैं। जनता भले ही भ्रष्टाचार और अफसरशाही से त्रस्त हो, पर नेताओं को इसकी परवाह नहीं। उन्हें पता है कि चुनाव के ठीक पहले “लाड़ली बहना” या “लाड़ला जीजा” जैसी कोई योजना आएगी, और जनता फिर से भूलने की अपनी आदत के चलते उन्हीं को वोट देगी, जिनसे वो सबसे ज्यादा त्रस्त है।

“जनता की चिंता किसे है?”

सरकारी दफ्तरों और पुलिस थानों में भ्रष्टाचार इस कदर अपनी जड़ें जमा चुका है कि अब इसे उखाड़ने के लिए सिर्फ इच्छाशक्ति नहीं, बल्कि JCB की जरूरत पड़ेगी। पर अफसोस, जिले में ऐसा कोई “चालक” मौजूद नहीं जो इस गंदगी को साफ करने का बीड़ा उठाए।

जनता रोज भ्रष्टाचार से लड़ती है, परेशान होती है, लेकिन फिर पांच साल में एक बार चुनाव आते ही उसी भ्रष्ट सिस्टम को फिर से सत्ता सौंप देती है। तो आखिर में सवाल यही है – जनता लाचार है, बेबस है, या उसे भी इस सिस्टम से प्यार हो गया है?

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